सेकुलरिज़्म” और “सर्वधर्म-संभाव” दो अलग-अलग चीज़ है. सेकुलरिज़्म पश्चिमी राष्ट्रों की अवधारणा है जबकि “सर्वधर्म-संभाव” भारतीय मूल की अवधारणा है. सेकुलरिज़्म की उत्पत्ति ऐसे राष्ट्रों मे हुई जहाँ लगभग एक धर्म, एक भाषा, एक रंग और एक नस्ल के लोग थे. यहाँ एक प्रश्न है की जब इतनी समानतायेँ थी तो फिर पश्चिमी देशों मे “सेकुलरिज़्म” की आवश्यकता क्यो थी? स्पष्ट है की जो “पश्चिमी सेकुलरिज़्म” है उसमे धर्म-विहीन समाज और राज्य की कल्पना है. भारत सदा से “सर्वधर्म संभाव” का परवर्तक रहा है. भारतमे “सर्वधर्म-संभाव” की अवधारणा पश्चिमी सेकुलरिज़्म की बुनियाद मैग्ना-कार्टा, फ्रेंच-रिवैल्यूशन और इटली के अभ्युदय से बहुत पहले की अवधारणा है. जब “सर्वधर्म-संभाव” इतनी पुरानी भारतीय अवधारणा है तो फिर पश्चिमी देशों की “सेकुलरिज़्म” को “सर्वधर्म-संभाव” के बराबर खड़ा करने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? जबकि भारत के किसी भी बड़े आधुनिक लेखक या शिक्षाविद के द्वारा सेकुलरिज़्म पर लिखी पुस्तकों या लेखों को उठाकर देख लीजिये आपको कहीं पर भी “सर्वधर्म-संभाव” की बात लिखी नहीं मिलेगी. बल्कि भारत के भी सभी बड़े आधुनिक सेकुलर शिक्षाविदों ने भी “धर्मविहीन समाज या राज्य” की कल्पना किया है. आप उन लेखकों के धर्म को जानने का प्रयास कीजिये सभी स्वयं को नास्तिक या वामपंथी बोलने से गुरेज नहीं करते है. हाँ, इन सभी सेकुलर लेखकों मे अधिकतम ब्राह्मण जाति के अवश्य है
जब सेकुलरिज़्म के भारतीय संस्करण के लगभग सभी लेखक “सर्वधर्म-संभाव” की बात नहीं करते है और उनके सामने धर्म “एक अफ़ीम” से अधिक कुछ भी नहीं तो फिर भारत का प्रत्येक धार्मिक सुर-वीर स्वयं को सेकुलर होने का ढोंग क्यों करता है? साथ ही सेकुलरिज़्म का भारतीय संस्करण “सर्वधर्म-संभाव” को क्यों बताता है? सेकुलरिज़्म का अर्थ “धर्मविहीन समाज और राज्य की अवधारणा है” जबकि सर्वधर्म-संभाव का अर्थ “दो धर्मों के लोगों के बीच का आपसी सौहार्द” है. यह सर्वधर्म संभाव की प्रवृत्ति भारतीयता की सवभाव का हिस्सा है. इसका संभाव का उदाहरण रोज़मर्रा की ज़िंदगी मे प्रत्येक दिन देखने को मिलता है. इसलिए संविधान सभा की बहस मे इस मुद्दे को शामिल नहीं किया गया. लेकिन, भारत मे सेकुलरिज़्म के नाम पर एक ख़ालिस राजनीति का विकास हुआ जिसका मूल उद्देश्य सामाजिक न्याय की लड़ाई को ख़त्म करना था. इसकी शुरुआत इन्दिरा गांधी ने किया और संविधान-संशोधन विधियक लाकर संविधान की मूल प्रस्तावना मे बदलाव करके “सेकुलर” शब्द को जोड़ दिया. भारत जैसे विविधता वाले राष्ट्र मे प्रतिनिधित्व एक बड़ा प्रश्न था. आज जिस सेकुलरिज़्म का नाम देकर मुसलमानों और हिंदुओं मे दूरी बढ़ाई गयी उसका मूल उद्देश्य “प्रतिनिधित्व” से वंचित करना था. यह तो स्पष्ट है की भारत जैसे धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता वाले राष्ट्र मे सेकुलरिज़्म मजबूत नहीं हो सकती. भारत मे लड़ाई सेकुलरिज़्म की नहीं है. क्योंकि भारत मे शून्य प्रतिशत से भी कम लोग सेकुलर है. भारत मे लड़ाई सामाजिक न्याय या प्रतिनिधित्व की है. जिस दिन मुसलमानों, दलितों और वंचितों को बराबर का न्याय और प्रतिनिधित्व मिलने लगेगा उसी दिन से तथाकथित सेकुलरिज़्म की बहस भी समाप्त हो जाएगी और वामपंथी या कम्यूनिस्ट नाम के काम्रेड सदा के लिए मरणासन्न मुद्रा मे पहुँच जाएंगे.
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