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Saturday, 3 December 2016

इन्दिरा गांधी और संजय गाँधी कि देन है भारतीय-राजनीति में सांप्रदायिक


Tarique Anwar Champarni
मैंने हमेशा से ही “मुसलमान” को एक समुदाय और “इस्लाम” को एक धर्म समझा है. ऐसा इसलिए समझा है क्योंकि बहुधर्मी सांस्कृतिक वाला भारत एक लोकतान्त्रिक देश है. मै एक समुदाय(मुस्लिम) के सदस्य होने के रूप मे पिछले एक हफ्ता से दलितों के घर पर खाना, पीना और रहना-सहना कर रहा हूँ. हालाँकि इन दलितों मे से कुछ तो रविदासी है, कुछ सिक्ख है और कुछ हिन्दू है. फिर भी इनके साथ रह रहा हूँ. यह हमलोगों का धार्मिक सद्भाव और सर्वधर्म-संभाव है. लेकिन, मै एक 

इस्लाम के मानने वाले के रूप मे इनके साथ मंदिर पूजा करने नहीं जाऊंगा और मुझे मालूम है कि वह भी मस्जिद मे नमाज़ पढ़ने नहीं आयेंगे. यह एक सच्चा उदाहरण है जिससे मालूम पड़ता है कि एक-दूसरे कि धर्मों का आदर करते हुए भी धार्मिक सद्भाव बना रह सकता है या बना हुआ है और सदियों पुरानी भारत कि यही कहानी भी है. लेकिन भारत मे सेकुलरिज़्म कि बहस कब छिड़ी? एक तरफ इन्दिरा गांधी संविधान-संशोधन करके “सेकुलरिज़्म” को भारतीय-राजनीति मे लॉंच कर रही थी तो उनके ही बड़े बेटा संजय गाँधी हिन्दुत्व कि सांप्रदायिक राजनीति को भारतीय-राजनीति मे घोल रहे थे. यही वह पड़ाव था जहाँ से भारतीय राजनीति मे वोट-बैंक के ख़ातिर सेकुलरिज़्म को पूरी तरह से लॉंच किया गया. समस्या यह हुआ कि जब भी मुसलमान काँग्रेस के सामने अपनी समस्याओं को रखना शुरू किया काँग्रेस ने मुसलमान को “एक समुदाय” नहीं बल्कि “एक 
धर्म के रूप” मे ट्रीट किया. लोगों को समझना चाहिये कि जब एक मुसलमान-दलित-हिन्दू एक गाँव मे साथ रह रहे है इसका सीधा सा अर्थ है कि यह सद्भाव है फिर ऐसे समाज को पश्चिम के देशों से लाया हुआ “सेकुलरिज़्म” सीखाने कि आवश्यकता नहीं थी? इसी बीच विश्वविधालय के कुछ वामपंथी प्रोफेसर और कुछ लेखक, जो काँग्रेस कि नीतियों के कारण किसी करणवस स्वतंत्रा के बाद काँग्रेस से दूर रहे, को मौक़ा मिला और पश्चिमी सेकुलरिज़्म यानि धर्मविहीन-समाज या धर्मविहीन-राज्य कि अवधारणा को परोसना शुरू कर दिया. जिसमे सबसे अधिक नुकसान इस्लाम के मानने वाले का हुआ. समस्या तब और भीषण हो गयी जब एक समुदाय के रूप मे मुसलमानों ने सरकार से बुनियादी-सुविधाओं मे बराबरी का हिस्सा मांगना शुरू किया तब मुसलमानों को “धर्म” का नाम देकर अलग चिन्हित किया गया. उदाहरण के रूप मे केजरीवाल के दिल्ली मे मुस्लिम समुदाय के केवल 1% लोग सरकारी नौकरी मे है, सेकुलर दीदी के बंगाल मे मुसलमानों कि हालत बद-बदतर हो गयी, सेकुलर लालू और नितीश के बिहार मे मुसलमानों कि स्थिति दलितों से भी बदतर हो गयी. जब आज मुस्लिम समुदाय के लोग इनलोगों से प्रश्न करते है तो मुस्लिम समुदाय धार्मिक-कट्टर बन जाता है. कलतक आप तथाकथित सेकुलर लोग नींद मे सो रहे थे, आज मुसलमान समुदाय आपको मुँह खोलने पर विवश कर दिया है और आने वाले कल मे आपकी शातिराना नीतियों का दमन भी होगा. अभी भी समय है कि सेकुलरिज़्म कि आड़ मे धार्मिक सद्भाव को तोड़ने का काम बंद करो और सभी समुदाय को सामाजिक-न्याय दो. जब सभी समुदाय को सामाजिक-न्याय मिलेगा तब देश से सेकुलरिज़्म जैसी बहस कि समाप्ती खुद-बख़ुद हो जायेगी. यह देश धार्मिक-सद्भाव का प्रतीक रहा है और रहेगा

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