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Sunday, 18 December 2016

तुम ना होते जिंदगी में स्वयं के सामार्थ्य से तुमको मैं रचता - Rakshit Raj


तुम ना होते जिंदगी में स्वयं के सामार्थ्य से तुमको मैं रचता

Rakshit Raj
सोचता हूँ
तुम ना होते जिंदगी में
क्या कभी भी मैं भला
मधुमास होता
झील,सागर,नदी
अगर तुम ना होते
मैं कभी भी नही
फिर प्यास होता
सोचता हूँ
जब हमारे साथ
तुम थे
मैनें पर्वत को भी
राई किया था
एक तुम थे
जो उठा मुझ
कंकड़ो को
चूमकर होठो से
साई किया था
साथ अपना
सृष्टि का विवेचना था
लफ्ज अपना मंत्र का
अवधारणा है
एक क्षण वो था
जगत को ताड़ना था
आज खुद को बस
भँवर से पारना है
सोचता हूँ
अब तो हूँ मैं
निरा अकेला
अब तो राई भी मुझे
पर्वत लगेंगे
कंकड़ो की हैसियत
अब मेरे आगे
कोई ग्रह,नक्षत्र
सम ही तो लगेंगे
अब भी गुँजेंगे लफ्ज
कानो में भी तो
मंत्र वो मुझको तो
बस गाली लगेंगे
सोचता हूँ
आज मैं बिल्कुल अकेला
सुर्य हूँ
अपने विरह को
धुप कर लूँ
साथ हम-तुम ना रहे
अब कभी पर
दूर से ही दूरियो को दूर कर लूँ
सोचता हूँ
तुम ना होते जिंदगी में
स्वयं के सामार्थ्य से
तुमको मैं रचता

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